हवसनामा के अंतर्गत आज की यह
कहानी एक ऐसे युवक फैजान से सम्बंधित है जो उन हालात का सामना करता है जिनसे वह
राजी तो नहीं लेकिन जिन्हें बदल पाना उसके बस का नहीं था तो उन्हें चुपचाप स्वीकार
कर लेने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था। चलिये कहानी की शुरुआत फैजान के ही
शब्दों से करते हैं।
दोस्तो, मेरा नाम फैजान है और मैं बिहार के एक शहर का
रहने वाला हूँ। गोपनीयता के चलते अपने शहर का नाम नहीं बता सकता लेकिन बस इतना समझ
लीजिये कि यह शहर गुंडागर्दी और अराजकता के लिये बदनाम है।
यह बात साल भर
पहले की है जब हम अपने पुराने मुहल्ले को छोड़ कर नये मुहल्ले में शिफ्ट हुए थे।
मेरे परिवार में अम्मी अब्बू और एक बड़ी बहन रुबीना ही थी जिसकी उम्र इक्कीस साल
रही होगी तब और वह ग्रेजुएशन कर रही थी। जबकि मैं उससे दो साल छोटा था और मैंने
इंटर के बाद बी.ए. के लिये प्राईवेट का फार्म भर के काम से लग गया था।
दरअसल हमारा
मुख्य घर शहर से तीस किलोमीटर गांव में था लेकिन अब्बू की टेलरिंग की दुकान शहर
में थी तो हम किराये के मकान में यहीं रहते थे। इसी सिलसिले में हमें पिछला मकान
खाली करना पड़ा था और नये मुहल्ले में शिफ्ट होना पड़ा था।
यूँ तो हम चार
भाई बहन थे लेकिन बीमारी के चलते दो भाइयों की मौत छोटे पर ही हो गयी थी और हम दो
भाई बहन ही बड़े हो पाये थे। माँ बाप दोनों चाहते थे कि हम कम से कम ग्रेजुएशन की
पढ़ाई तो कर लें लेकिन मेरा खुद का पढ़ाई में कोई खास दिल नहीं लगता था तो इंटर के
बाद प्राइवेट ही ऐसे कालेज से बी.ए. का फार्म भर दिया था जहां नकल से पास होने की
पूरी गारंटी थी और खुद अब्बू की दुकान जाने लगा था कि उन्हें थोड़ा सहारा हो जाये।
जबकि बहन रेगुलर
शहर के इकलौते प्रतिष्ठित कालेज से पढ़ाई कर रही थी. यहां जब मैं यह कहानी इस मंच
पर बता रहा हूँ तो मुझे यह भी बताना पड़ेगा कि वह लंबे कद की काफी गोरी चिट्टी और
खूबसूरत थी, जिसके लिये मैंने
अक्सर लड़कों के मुंह से ‘क्या माल है’
जैसे कमेंट सुने थे, जिन्हें सुन कर गुस्सा तो बहुत आता था लेकिन मैं अपनी लिमिट
जानता था तो चाह कर भी कुछ नहीं कह पाता था।
शक्ल सूरत से मैं
भी अच्छा खासा ही था लेकिन कोई हीरो जैसी न पर्सनालिटी थी और न ही हिम्मत कि गुंडे
मवालियों से भिड़ जाऊं. फिर मेरी दोस्ती यारी भी अपने जैसे दब्बू लड़कों से ही थी।
कुछ दिन उस
मुहल्ले में गुजरे तो वहां के दबंग लड़कों के बारे में तो पूरी जानकारी हो गयी थी
और खास कर राकेश नाम के लड़के के बारे में, जो उनका सरगना था। उनमें से ज्यादातर हत्यारोपी थे और जमानत पर बाहर थे लेकिन
उनकी गुंडागर्दी या दबदबे में कमी आई हो, ऐसा कहीं से नहीं लगता था। उनमें से ज्यादातर और खास कर राकेश को राजनैतिक
संरक्षण भी हासिल था, जिससे उसके खिलाफ
पुलिस भी जल्दी कोई एक्शन नहीं लेती थी।
और रहा मैं …
तो मेरी तो हिम्मत भी नहीं पड़ती थी कि जहां वह
खड़ा हो, वहां मैं रुकूं… जबकि वह कुछ दिन में मुझे पहचानने और मेरे नाम
से बुलाने लगा था। परचून की दुकान पे खड़ा होता तो जबरदस्ती कुछ न कुछ ले के खिला
ही देता था। थोड़ी न नुकुर तो मैं करता था लेकिन पूरी तरह मना करने की हिम्मत तो
खैर मुझमें नहीं ही थी।
उसकी इस कृपा का
असली कारण तो मुझे बाद में समझ में आया था कि वह बहुत बड़ा चोदू था और उसकी नजर
मेरी बहन पर थी। उसकी क्या मुहल्ले के जितने दबंग थे, उन सबकी नजर उस पर थी और शायद राकेश का ही डर रहा हो कि वे
एकदम खुल के ट्राई नहीं कर पाते थे।
मेरे पिछले
मुहल्ले का माहौल ऐसा नहीं था तो यहां सब थोड़ा अजीब लगता था और गुस्सा भी आता था।
कई बार जब आते जाते लड़कों को मेरी बहन को इशारे करते या फब्तियां कसते देखता तो आग
तो बहुत लगती थी लेकिन फिर इस ख्याल से चुप रह जाता था कि वहां तो बात-बात पे छुरी
कट्टे निकल आते थे तो ठीक भी नहीं था मेरा बोलना।
रुबीना के लिये
यहां जिंदगी बड़ी मुश्किल थी क्योंकि उसे कालेज के बाद कोचिंग के लिये भी जाना होता
था जहां से शाम को वापसी होती थी और गर्मियों में तो फिर उजाला होता था वापसी में
तो चल जाता था लेकिन जब दिन छोटे होने हुए शुरू हुए तो जल्दी ही अंधेरा हो जाता था
जिससे उसे वापसी में बड़ी दिक्कत होती थी।
इस बारे में उसने
तो मुझे बाद में बताया था लेकिन कहानी के हिसाब से मेरा यहां बताना जरूरी है कि
गर्मियों के दिनों में तो फिकरे ही कसते थे लोग लेकिन जब से वापसी में अंधेरा होना
शुरू हुआ तब से उसका फायदा उठाते वे लफंगे गली में उसे न सिर्फ इधर उधर टच करते थे,
दूध दबाते थे बल्कि कई बार तो तीन चार लड़के पकड़
कर, दीवार से टिका कर बुरी
तरह मसल डालते थे।
ऐसे ही एक दिन
शाम को वापसी में मैंने इत्तेफाक से यह नजारा देख लिया था. मेरा घर एक लंबी बंद
गली के अंत में था और गली के मुहाने पर यूँ तो एक इलेक्ट्रिक पोल था जो रोशनी के
लिये काफी था लेकिन शाम को उस टाईम तो अक्सर कटौती की वजह से लाईट रहती ही नहीं
थी।
तो उस टाईम मैं
भी इत्तेफाक से घर की तरफ आ रहा था और शायद थोड़ा पहले ही रुबीना भी गली में घुसी
होगी। अंधेरा जरूर था मगर इतना भी नहीं कि कुछ दिखाई न और लाईट हस्बे मामूल गायब
थी। तो गली में घुसते ही मुझे वह तीन लड़के किसी को दीवार से सटाये रगड़ते दिखे जो
मेरी आहट सुन के थमक गये थे।
फिर शायद
उन्होंने मुझे पहचान लिया और वे उसे छोड़ के मेरे पास से गुजरते चले गये। मैं आगे
बढ़ा तो समझ में आया कि वह रुबीना थी, उसने भी मुझे पहचान लिया था और बिना कुछ बोले आगे बढ़ गयी थी। हम आगे पीछे कर
में दाखिल हुए थे और वह चुपचाप अपने कमरे में बंद हो गयी थी।
मैं उसकी
मनःस्थिति समझ सकता था, इसलिये कुछ कहना
पूछना मुनासिब नहीं समझा।
अगले दिन दोपहर
में जब हम घर पे अकेले थे तब मैंने उससे पूछा कि क्या प्राब्लम थी तो पहले तो वह
कुछ बोलने से झिझकी। जाहिर है कि हम भाई बहन थे और हममें इस तरह की बातें पहले कभी
नहीं हुई थी… लेकिन फिर उसने
बता दिया कि उसके साथ क्या-क्या होता था और वह अब सोच रही थी कि कोचिंग छोड़ ही दे।
तो मैंने उसे
भरोसा दिलाया- अभी रुक जाओ, मैं देखता हूँ
कुछ।
मैंने सोचा था कि
राकेश से कहता हूँ… वह बाकी लौंडों
को तो संभाल ही लेगा और जाहिर है कि खुद अपने जुगाड़ से लग जायेगा. लेकिन मुझे अपनी
बहन पर यकीन था कि वह उसके हाथ नहीं आने वाली और इसी बीच उसका ग्रेजुएशन कंपलीट हो
जायेगा।
मैंने ऐसा ही
किया. अगले दिन मौका पाते ही राकेश को पकड़ लिया और दीनहीन बन कर उससे फरियाद की,
कि वह मुहल्ले के लड़कों को रोके जो मेरी बहन को
छेड़ते हैं। उसकी तो जैसे बांछें खिल गयीं। ऐसा लगा जैसे वह चाहता था कि मैं उससे
ऐसा कुछ कहूँ। उसने मुझे भरोसा दिलाया कि मेरी बहन अब उसकी जिम्मेदारी… बस एक बार मैं उससे मिलवा दूं और बता दूं कि
राकेश अब उसकी हिफाजत करेगा और फिर किसकी मजाल कि कोई उसे छेड़े।
मुझे उस पर पूरा
यकीन नहीं था लेकिन फिर भी मैंने डरते-डरते रुबीना को राकेश से यह कहते मिलवा दिया
कि वह मुहल्ले का दादा है और अब वह किसी को तुम्हें छेड़ने नहीं देगा।
इसके दो दिन बाद
मैंने अकेले में रुबीना से पूछा कि अब क्या हाल है तो उसने बताया कि अब लड़के देखते
तो हैं लेकिन बोलते नहीं कुछ और कोचिंग से वापसी में राकेश उसे खुद से पिक कर के
दरवाजे तक छोड़ने आता है। मैं मन ही मन गालियां दे कर रह गया. समझ सकता था कि राकेश
अपने मवाली साथियों को रुबीना के विषय में क्या समझाया होगा।
बहरहाल, इस स्थिति को स्वीकार करने के सिवा हमारे पास
चारा भी क्या था। कम से कम इस बहाने वह मवालियों से सुरक्षित तो थी।
धीरे-धीरे ऐसे ही
कई दिन निकल गये।
फिर एक दिन
इत्तेफाक से मैं उसी टाईम वापस लौट रहा था जब वह वापस लौटती थी। वह शायद आधी गली
पार कर चुकी थी जब मैं गली में दाखिल हुआ। लाईट हस्बे मामूल गुल थी और नीम अंधेरा
छाया हुआ था। इतना तो मैं फिर भी देख सकता था उसके साथ चलता साया, जो पक्का राकेश ही था.. उसके गले में बांह डाले
था और दूसरे हाथ से कुहनी मोड़े कुछ कर रहा था। पक्का तो नहीं कह सकता पर अंदाजा था
कि वह उसके दूध दबा रहा था।
मेरे एकदम से आग
लग गयी और मैं उसे आवाज देने को हुआ पर यह महसूस करके मेरी आवाज गले में ही बैठ
गयी कि उसकी हरकत से शायद रुबीना को कोई एतराज ही नहीं था, क्योंकि न उसके कदम थमे थे और न ही वह अवरोध करती लग रही
थी।
मुझे सख्त हैरानी
हुई। दरवाजे पर पहुंच कर शायद दोनों ने कुछ रगड़ा रगड़ी की थी जो अंधेरे में मैं ठीक
से समझ न सका और फिर वह अंदर घुस गयी और राकेश वापस मुड़ लिया।
मेरे पास पहुंचते
ही उसने मुझे पहचान लिया और एक पल को सकपकाया तो जरूर लेकिन फौरन चेहरे पर बेशर्मी
भरी मुस्कान आ गयी- घर तक छोड़ के आया हूँ बे, अब कोई नहीं छेड़ता। डोंट वरी… एश कर।
वह मेरे कंधे पर
हाथ मारता हुआ गुजर गया और मुझसे कुछ बोलते न बना।
घर पहुंच कर मेरा
रुबीना से सामना हुआ तो मेरा दिल तो किया कि उससे पूछूं लेकिन हिम्मत न पड़ी और बात
आई गयी हो गयी।
अगले हफ्ते रात
के करीब दस बजे मैं वापस लौट रहा था कि राकेश ने मेरी गली के पास ही मुझे रोक
लिया। जनवरी का महीना था.. लाईट तो आ रही थी पर हर तरफ सन्नाटा हो चुका था। वे एक
खाली खोखे में बैठे थे जो था तो धोबी का लेकिन अभी वहां अकेला राकेश ही था और उसका
एक चेला, जिसने मुझे रोका था।
“अंदर चल।”
चेले ने मुझे कंधे पर दबाव डाल कर खोखे के अंदर
ठेलते हुए कहा और बाहर खुद खड़ा हो गया।
खोखा सामने से तो
बंद था तो सामने से कुछ दिखना नहीं था और साइड से जो अंदर घुसने का रास्ता था,
वहां चेला खड़ा था। अंदर जिस टेबल पर धोबी प्रेस
करता था, उस पर दारू की एक आधी
खाली बोतल और दो गिलास रखे थे और साथ ही रखा था एक देसी कट्टा, जो शायद मुझे डराने के लिये था।
ठंड में भी मेरे
पसीने छूट गये।
“क्या बात है
दद्दा?” मैंने डरते-डरते पूछा।
“आज मूड हो रहा है
बे… इस टाईम कोई लौंडिया तो
मिलेगी नहीं। तू ही सही। यह देख।” उसकी आवाज और
चढ़ी हुई आंखें बता रही थीं कि वह नशे में था। मुझे उससे डर लगने लगा था।
जबकि उसने अपनी
पैंट सामने से खोल कर अंडरवियर समेत नीचे कर दी थी जिससे उसका अर्ध उत्तेजित लिंग
एकदम मेरे सामने आ गया था। उसके निगाहों से घुड़कने पर मैंने उसके लिंग की ओर देखा…
अभी पूरी तरह खड़ा भी नहीं था तब भी सात इंच से
लंबा ही लग रहा था और मोटा भी काफी थे। टोपे पर से आगे की चमड़ी अभी पूरी तरह हटी
नहीं थी।
कहानी जारी रहेगी.
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